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श्री चित्रगुप्त जी की उद्गम-स्थान

                मनुष्यो के पाप-पुण्य का लेखा जोखा रखने वाले | "एक दिव्य देव शक्ति जो चिन्तान्त: करण में चित्रित चित्रों को पढ़ती है,उसी के अनुसार उस व्यक्ति के जीवन को नियमित करती है, अच्छे-बुरे कर्मों का फल भोग प्रदान करती है, न्याय करती है।उसी दिव्य देव शक्ति का नाम चित्रगुप्त है।" चित्रगुप्तजी कायस्थों के जनक हैं। कर्मो के अच्छे बुरे फलों को भोगने के लिए ही चौरासी लाख योनियां हैं। जिस स्तर के कर्म होंगे उसी स्तर का शरीर मिल जायेगा। कर्मो का क्रमश सुधार करने के लिए ही इतनी योनियां बनार्इ हैं।
          कर्मों की अच्छार्इ बुरार्इ का निर्णय कौन करे ? यह शकित तो ब्रह्मा जी स्वयं भी कर्ता और भोक्ता हैं उनके के पास भी नहीं थी। अत: ब्रह्मा जी ने दस हजार वर्ष की दीर्घ तपस्या की। समाधि खुलते ही देखा, एक दिव्य पुरुष सामने उपसिथत है। वे आश्चर्य में भरकर पूछने लगे – आप कौन हैं ? कहा से आये हैं ? इसी तथ्य को वेदों में कहा -
                    ‘चित्रम उदगाद’ विचित्र देव प्रगट हुए, ब्रह्मा जी के मुख से निकल पड़ा ‘चित्रम’, आप महान आश्चर्य हैं, विचित्र हैं आप। मैं नहीं जानता आप ही बताइये आप कौन हैं ? मेरी सृषिट से आप परे हैं। आप सम्पूर्ण प्रकृति से पार हैं। मेरी इस श्रेष्ठ कृति (प्रकृति) में आपकी गिनती नहीं है। आप प्रकृति से परे हैं। देवानाम आप सभी देवताओं से दिव्य हैं। दिव्यताओं के स्रोत हैं। सौन्दर्य के भी सौन्दर्य हैं। प्रकाशों के भी प्रकाश। सूर्य का प्रकाश आपके सामने निरस्त है, जैसे तारे सूर्य के सामने नहीं चमकते वैसे सूर्य आपके समक्ष निस्तेज है। न चन्दमा ही आपके सामने चमकता न तारक मण्डल। विधुत की दीपित आपके सामने तेज रहित है, इस अगिन की तो कोर्इ गिनती ही नहीं। वस्तुत: आपके प्रकाश से ही ये सब प्रकाशित है। इनमें अपना प्रकाश नहीं है। इन सबके प्रकाशक आप हैं।
श्री चित्रगुप्त बोले – मैं एकदेशीय नहीं हू कि कहीं बैकुण्ठ कैलास, काशी, मथुरा, अयोध्या आदि में रहू, मैं तो इन सबमें सर्व व्यापक हू, सर्वत्र हू - इस धरती के कण-कण में इसके ऊपर सम्पूर्ण अन्तरिक्ष में, जहा सूर्यादि ग्रह घूम रहे हैं, इन ग्रहों से भी परे धौ लोक में, सर्वत्र मैं विराजमान हू। मैं सब के हृदय में निवास करता हू, घट-घट में समाया हू प्रकृति में देश काल दिशा विदिशा में व्याप्त हू और इनसे परे भी हू।
वेद बताते हैं -श्री चित्रगुप्त कथा में कहा है वह कायस्थ है। काया में सिथत है। उसे शरीर से बाहर वास्तविक रुप में कोर्इ नहीं देख सकता। बाहर तो उसका मायिक रुप दिखार्इ देता है। अवतरित रुप दिखता है। जब वह भक्तों के पुकारने पर साकार बनता है। सगुण बनता है तब अपने धारित रुप में दिखता है।उसका माया रहित स्वरुप तो कायस्थ है। हृदयस्थ है, आत्मस्थ है। काया देह और शरीर का वास्तविक अर्थ एक ही नहीं है। शरीर तो वह है जो जीर्ण शीर्ण होता रहता है। देह वह है जिसका दहन किया जाता है। किन्तु काया इनसे दिव्य है।
विधाता बोले – आप कायस्थ हैं। चित्रगुप्त हैं। हमारे पास चौदह इनिद्रयां हैं। पाच कर्मेनिद्रयां और चार अन्त: इनिद्रयां, जिसको अन्त: करण चतुष्टय कहा है। अन्त: करण में मन बु़िद्व चित्त और अहंकार चार विभाग हैं।
चित्त वह अनुभाग है जो हमारे प्रत्येक अनुभव, विचार, कार्य और संवेदनाओं के चित्र खींच लेता है। चित्रगुप्त वे दिव्य देवता हैं जो इन चित्रों का गोपन करते हैं, संरक्षण करते हैं। जो इन चित्रों के स्वामी हैं, चित्रगुप्त हैं। इन चित्रमय खातों को देखकर ही प्राणी के कर्मां को पढ़ते हैं तथा निर्णय करते हैं, दु:ख-सुख प्रदान करते हैं। इस प्रकार इस वेद मंत्र में भगवान चित्रगुप्त के दिव्य स्वरुप का शाबिदक चित्र किया है।
            इससे स्पष्ट हो जाता है कि चित्रगप्त स्वंय पर ब्रह्रा परमेश्वर हैं। ब्रह्मा जी के भी घ्यातव्य हैं, उपास्य हैं, आराध्य हैं। ब्रह्मा जी के पुत्र नहीं, उनके र्इश्वर हैं, उनमें व्यापक हैं।
         भगवान चित्रगुप्त पुकारने पर अवतरित होते हैं। कर्म फलों के दाता हैं, अच्छे बुरे कर्मों के निर्णायक हैं। देव, दानव, यक्ष, किन्नर, ब्रह्मा , विष्णु, महेश सभी उनके न्याय क्षेत्र में आते हैं।
          रामावतार के समय बाली को छिप कर मारा तो कृष्णावतार में भील का बाण खाकर बदला चुकाना पड़ा। तुलसी के शाप से सालग्राम को पत्थर बनना पड़ा। नारद के शाप से नाभी विरह में भटकना पड़ा। सभी को भगवान चित्रगुप्त की न्याय तुला पर खरा उतरना पड़ता है। आइए, हम सभी कायस्थ अपने कुलदेव भगवान चित्रगुप्त की आराधना कर अनन्त पुण्य प्राप्त करें।
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