श्री चित्रगुप्त चालीसा
मंगलम मंगल करन, सुन्दर बदन विशाल। सोहे कर में लेखनी, जय जय दीन दयाल।।
सत्य न्याय अरु प्रेम के, प्रथम पूज्य जगपाल। हाथ जोड़ विनती करु, वरद हस्त धरु भाल।।
चित्रगुप्त बल बुद्धि उजागर, त्रिकालज्ञ विधा के सागर। शोभा दक्षिण पति जग वनिदत, हसमुख प्रिय सब देव अनन्दित।।
शान्त मधुर तनु सुन्दर रुपा, देत न्याय सम द्रष्टि अनूपा। क्रीट मुकुट कुन्डल धुति राजे, दहिन हाथ लेखनी विराजे।।
वाम अंग रिद्धि सिद्धि विराजे, जाप यज्ञ सौ कारज साजे। भाव सहित जो तुम कह ध्यावे, कोटि जन्म के पाप नसावे।।
साधन बिन सब ज्ञान अधूरा, कर्म जोग से होवे पूरा। तिन्ह मह प्रथम रेख तुम पार्इ, सब कह महिमा प्रकट जनार्इ।।
न्याय दया के अदभुत जोगी, सुख पावे सब योगी भोगी। जो जो शरण तिहारी आवे, वुधिवल, मनवल, धनवल पावे।।
तुम व्रहमा के मानस पूता, सेवा में पार्षद जम दूता। सकल जीव देव कर्मन में वांधे, तिनको न्याय तुम्हारे कांधे।।
तुम तटस्थ सब ही की सेवा, सब समान मानस अरु देवा। निर्विध्न प्रतिनिधि ब्रहमा के, पालक सत्य न्याय बसुधा के।।
तुम्हारी महिमा पार न पावे, जो शारद शत मुख गुण गावें। चार वेद के रक्षक त्राता, मर्यादा के जीवन दाता।।
ब्रहमा रचेऊ सकल संसारा, चित्त तत्व सब ही कह पारा। तिन चित्तन में वासु तुम्हारा, यह विधि तुम व्यापेऊ संसारा।।
चित्त अद्रश्य रहे जग माही, भौतिक दरसु तुम्हारो नाही। जो चित्तन की सीमा माने, ते जोगी तुम को पहचाने।।
हमहि अगम अति दरसु तुम्हारा, सुगम करहु निज दया अधारा। अब प्रभु कृपा करहु एहि भांति, सुभ लेखनी चे दिन राती।।
गुप्त चित्र कह प्रेरण कीजै, चित्रगुप्त पद सफल करीजै। आए हम सब शरण तिहारी, सफल करहु साधना हमारी।।
जेहि जेहि जोनि भभें जड़ जीवा, सुमिरै तहां तुम्हारी सीवा। जीवन पाप पुण्य तै ऊची, पूजन उपासना सौ सींचौ।।
जो-जो कृपा तुम्हारी पावें, सो साधन को सफल बनावें। सुमिरन करें सुरुचि बड़भागी, लहै मनोरथ गृही विरागी।।
अष्ट सिद्धि नव निधि के दाता, पावें कर्मजोग ते ताता। अंधकार ते आन बचाओं, मारग विधिवत देव बताओं।।
शाश्वत सतोगुणी सतरुप, धर्मराज के धर्म सहूत। मसि लेखन के गौरव दाता, न्याय सत्य के पूरण त्राता।।
जो जो शरण तिहारी आबे, दिव्य भाव चित्त में उपजाबे। मन बुधि चित्त अहिमति के देवा, आरत हरहु देउ जन सेवा।।
श्रमतजि किमपि प्रयोजन नाही, ताते रहहु गुपुत जग माही। धर्म कर्म के मर्मकज्ञाता, प्रथम न्याय पद दीन्ह विधाता।।
हम सब शरण तिहारि आये, मोह अरथ जग में भरमाये। अब वरदान देहु एहि भांति, न्याय धर्म के बने संधाति।।
दिव्य भाव चित्त में उपजावें, धर्म की सेवा पावे। कर्मजोग ते जग जस पावें, तुम्हरि महिमा प्रकट जनावें।
यह चालीस भकितयुक्त, पाठ करै जो कोय।
तापर कृपा प्रसन्नता, चित्रगुप्त की होय।।
मंगलम मंगल करन, सुन्दर बदन विशाल। सोहे कर में लेखनी, जय जय दीन दयाल।।
सत्य न्याय अरु प्रेम के, प्रथम पूज्य जगपाल। हाथ जोड़ विनती करु, वरद हस्त धरु भाल।।
चित्रगुप्त बल बुद्धि उजागर, त्रिकालज्ञ विधा के सागर। शोभा दक्षिण पति जग वनिदत, हसमुख प्रिय सब देव अनन्दित।।
शान्त मधुर तनु सुन्दर रुपा, देत न्याय सम द्रष्टि अनूपा। क्रीट मुकुट कुन्डल धुति राजे, दहिन हाथ लेखनी विराजे।।
वाम अंग रिद्धि सिद्धि विराजे, जाप यज्ञ सौ कारज साजे। भाव सहित जो तुम कह ध्यावे, कोटि जन्म के पाप नसावे।।
साधन बिन सब ज्ञान अधूरा, कर्म जोग से होवे पूरा। तिन्ह मह प्रथम रेख तुम पार्इ, सब कह महिमा प्रकट जनार्इ।।
न्याय दया के अदभुत जोगी, सुख पावे सब योगी भोगी। जो जो शरण तिहारी आवे, वुधिवल, मनवल, धनवल पावे।।
तुम व्रहमा के मानस पूता, सेवा में पार्षद जम दूता। सकल जीव देव कर्मन में वांधे, तिनको न्याय तुम्हारे कांधे।।
तुम तटस्थ सब ही की सेवा, सब समान मानस अरु देवा। निर्विध्न प्रतिनिधि ब्रहमा के, पालक सत्य न्याय बसुधा के।।
तुम्हारी महिमा पार न पावे, जो शारद शत मुख गुण गावें। चार वेद के रक्षक त्राता, मर्यादा के जीवन दाता।।
ब्रहमा रचेऊ सकल संसारा, चित्त तत्व सब ही कह पारा। तिन चित्तन में वासु तुम्हारा, यह विधि तुम व्यापेऊ संसारा।।
चित्त अद्रश्य रहे जग माही, भौतिक दरसु तुम्हारो नाही। जो चित्तन की सीमा माने, ते जोगी तुम को पहचाने।।
हमहि अगम अति दरसु तुम्हारा, सुगम करहु निज दया अधारा। अब प्रभु कृपा करहु एहि भांति, सुभ लेखनी चे दिन राती।।
गुप्त चित्र कह प्रेरण कीजै, चित्रगुप्त पद सफल करीजै। आए हम सब शरण तिहारी, सफल करहु साधना हमारी।।
जेहि जेहि जोनि भभें जड़ जीवा, सुमिरै तहां तुम्हारी सीवा। जीवन पाप पुण्य तै ऊची, पूजन उपासना सौ सींचौ।।
जो-जो कृपा तुम्हारी पावें, सो साधन को सफल बनावें। सुमिरन करें सुरुचि बड़भागी, लहै मनोरथ गृही विरागी।।
अष्ट सिद्धि नव निधि के दाता, पावें कर्मजोग ते ताता। अंधकार ते आन बचाओं, मारग विधिवत देव बताओं।।
शाश्वत सतोगुणी सतरुप, धर्मराज के धर्म सहूत। मसि लेखन के गौरव दाता, न्याय सत्य के पूरण त्राता।।
जो जो शरण तिहारी आबे, दिव्य भाव चित्त में उपजाबे। मन बुधि चित्त अहिमति के देवा, आरत हरहु देउ जन सेवा।।
श्रमतजि किमपि प्रयोजन नाही, ताते रहहु गुपुत जग माही। धर्म कर्म के मर्मकज्ञाता, प्रथम न्याय पद दीन्ह विधाता।।
हम सब शरण तिहारि आये, मोह अरथ जग में भरमाये। अब वरदान देहु एहि भांति, न्याय धर्म के बने संधाति।।
दिव्य भाव चित्त में उपजावें, धर्म की सेवा पावे। कर्मजोग ते जग जस पावें, तुम्हरि महिमा प्रकट जनावें।
यह चालीस भकितयुक्त, पाठ करै जो कोय।
तापर कृपा प्रसन्नता, चित्रगुप्त की होय।।
श्री चित्रगुप्त जी मंत्र
मषीभाजनसंयुक्तश्चरसि त्वं ! महीतले ।
लेखनी- कटिनीहस्त चित्रगुप्त नमोऽस्तुते ॥
चित्रगुप्त ! नमस्तुभ्यं लेखकाक्षरदयकम् !
कायस्थजातिमासाधा चित्रगुप्त ! नमोऽस्तुते ॥!
ध्यानं
शान्ताकारं कमलनयनं , चित्रगुप्त सुरेशम ।
विश्वाधारं गगन सदृशं , मेघवर्णं शुभाग्ड़म ॥
इरावती दक्षिणा कान्तं ,योगिभिध्यनि गम्यम ।
वन्दे चित्र धर्मराज , सर्व लोकंक नाथम ॥
आवाहन
ॐ आगच्छ भगवन्देव स्थाने चात्र स्थिरौ भव ।
यावत्पूजं करिष्यामि तावत्वं सन्निधौ भव ।
ॐ भगवन्तं श्री चित्रगुप्त आवाहयामि स्थापयामि ।।
दोनो हाथ जोडकर प्रभु चित्रगुप्त जी से प्रार्थना कीजिये के हे प्रभु जब तक मैं आपकी पूजा करूं तब तक प्रभु आप यहां विराजमान रहिये।
श्री चित्रगुप्ता गायत्रीमंत्र
ॐ भूर्भुवः स्वः
तत्पुरुषाय विेदमहे , चित्रगुप्ताय: कीमहि
तन्नो चित्रगुप्त : प्रचोदयात् स्वः ।।
अर्थ :- हम सर्व रक्षक प्रभु प्राणस्वरुप, दुख विनाशक सुख स्वरुप भगवान चित्रगुप्त को भली भान्ति जानते है । उन कायस्थ श्रेष्ठ का ध्यान करते है । वे चित्रगुप्त भगवन हमे शुभकार्यो मे प्रेरित करे ॥
श्री चित्रगुप्त जप - मंत्र
ॐ नमो विचित्राय धर्मलेखाकाय
यमवाहिकादिकारणी मृत्यु- जन्म सयुत्प्रलयम कथय कथय स्वाहा
अर्थ :- जो फल १०० अश्वमेघ यन्त्र करने का ,बार बार गंगा स्नान करने का,सूर्य और चन्द्रगृहण पर प्रयाग स्नान करने का होता है वही फल भगवान चित्रगुप्त के इस जप-मंत्र से होता है॥
श्री चित्रगुप्ता अरोग्य मंत्र
ॐ नमः चित्रगुप्ताय शान्ताय सर्व रोग विनाशने
आयु आरोग्यं एश्यर्यं देहि देवँ जगत्पये
अर्थ :- यदि किसी परिवार मे गरीवी आई हो, दुखमय जिन्दगी गुजर कर रही हो, वेकारी का समाना कर रहा होन और वैवाहिक कार्य सम्पन्न न हो पा रहा है। तो इस चमत्कारी अरोग्य मत्रं का जप करने से सारे कष्ट दुर हो जाते है ।
श्री चित्रगुप्त वंदना
पंकज समान सूचि-सुंदर मृदुल तन,पंकज समान मुख-दृग रतनोर है |
साम दंड,भेद,पत्र लेखनी दवात,न्याय निती, आयुधादी नित्य कर धारे है |
वंदन करत जोहि,सुर,नर,मुनि सब,चित्र-रवि,धर्मराज नाम,सो उबारे है |
ब्रह्मा-वंशज,सुधीन्द्र गुण,ज्ञान विधि,,ध्यावत ही पाप-पुंज नाशत हमारे है |
:- तुलसीदास
भगवान चित्रगुप्त वचनामृत
मषीभाजनसंयुक्तश्चरसि त्वं ! महीतले ।
लेखनी- कटिनीहस्त चित्रगुप्त नमोऽस्तुते ॥
चित्रगुप्त ! नमस्तुभ्यं लेखकाक्षरदयकम् !
कायस्थजातिमासाधा चित्रगुप्त ! नमोऽस्तुते ॥!
ध्यानं
शान्ताकारं कमलनयनं , चित्रगुप्त सुरेशम ।
विश्वाधारं गगन सदृशं , मेघवर्णं शुभाग्ड़म ॥
इरावती दक्षिणा कान्तं ,योगिभिध्यनि गम्यम ।
वन्दे चित्र धर्मराज , सर्व लोकंक नाथम ॥
आवाहन
ॐ आगच्छ भगवन्देव स्थाने चात्र स्थिरौ भव ।
यावत्पूजं करिष्यामि तावत्वं सन्निधौ भव ।
ॐ भगवन्तं श्री चित्रगुप्त आवाहयामि स्थापयामि ।।
दोनो हाथ जोडकर प्रभु चित्रगुप्त जी से प्रार्थना कीजिये के हे प्रभु जब तक मैं आपकी पूजा करूं तब तक प्रभु आप यहां विराजमान रहिये।
श्री चित्रगुप्ता गायत्रीमंत्र
ॐ भूर्भुवः स्वः
तत्पुरुषाय विेदमहे , चित्रगुप्ताय: कीमहि
तन्नो चित्रगुप्त : प्रचोदयात् स्वः ।।
अर्थ :- हम सर्व रक्षक प्रभु प्राणस्वरुप, दुख विनाशक सुख स्वरुप भगवान चित्रगुप्त को भली भान्ति जानते है । उन कायस्थ श्रेष्ठ का ध्यान करते है । वे चित्रगुप्त भगवन हमे शुभकार्यो मे प्रेरित करे ॥
श्री चित्रगुप्त जप - मंत्र
ॐ नमो विचित्राय धर्मलेखाकाय
यमवाहिकादिकारणी मृत्यु- जन्म सयुत्प्रलयम कथय कथय स्वाहा
अर्थ :- जो फल १०० अश्वमेघ यन्त्र करने का ,बार बार गंगा स्नान करने का,सूर्य और चन्द्रगृहण पर प्रयाग स्नान करने का होता है वही फल भगवान चित्रगुप्त के इस जप-मंत्र से होता है॥
श्री चित्रगुप्ता अरोग्य मंत्र
ॐ नमः चित्रगुप्ताय शान्ताय सर्व रोग विनाशने
आयु आरोग्यं एश्यर्यं देहि देवँ जगत्पये
अर्थ :- यदि किसी परिवार मे गरीवी आई हो, दुखमय जिन्दगी गुजर कर रही हो, वेकारी का समाना कर रहा होन और वैवाहिक कार्य सम्पन्न न हो पा रहा है। तो इस चमत्कारी अरोग्य मत्रं का जप करने से सारे कष्ट दुर हो जाते है ।
श्री चित्रगुप्त वंदना
पंकज समान सूचि-सुंदर मृदुल तन,पंकज समान मुख-दृग रतनोर है |
साम दंड,भेद,पत्र लेखनी दवात,न्याय निती, आयुधादी नित्य कर धारे है |
वंदन करत जोहि,सुर,नर,मुनि सब,चित्र-रवि,धर्मराज नाम,सो उबारे है |
ब्रह्मा-वंशज,सुधीन्द्र गुण,ज्ञान विधि,,ध्यावत ही पाप-पुंज नाशत हमारे है |
:- तुलसीदास
भगवान चित्रगुप्त वचनामृत
भगवान चित्रगुप्त कहते है
१. मेरे मार्ग पर तो चलकर देख ,तेरे सब मार्ग ना खोल दे तो कहना ||
२. मेरी और आके तो देख,तेरा ध्यान ना रखू तो कहना ||
३. तू मेरा बन कर तो देख, हर एक को तेरा ना वाना दूँ तो कहना ||
४. तू मुझमे श्रद्धा विश्वास रख के तो देख ,तुझे समाज मे अग्रणी ना वाना दूँ तो कहना ||
५. तू मुझे अपना मददगार वना के तो देख ,तेरा जीवन सफल ना कर दूं तो कहना ||
६. तू मेरे नाम से खर्च करके तो देख , तेरे भंडार ना भर दूं तो कहना ||
७. तू मेरे लिए कष्ट उठा के तो देख , तेरे जीवन मे आनंद का सागर ना भर दूं तो कहना ।।
८. तू मेरे चरित्र का मनन करके तो देख ,ज्ञान के मोती तुझमे ना भर दूं तो कहना ||
९. तू मेरे नाम का संकीर्तन करके तो देख ,तुझे सब व्याधियो से मुक्त ना कर दूं तो कहना ||
१०. तू मेरे अनुसासन - मर्यादा मे रह के तो देख ,तुझे चरमोत्कर्ष पर ना पहुचा दूं तो कहना ||
१. मेरे मार्ग पर तो चलकर देख ,तेरे सब मार्ग ना खोल दे तो कहना ||
२. मेरी और आके तो देख,तेरा ध्यान ना रखू तो कहना ||
३. तू मेरा बन कर तो देख, हर एक को तेरा ना वाना दूँ तो कहना ||
४. तू मुझमे श्रद्धा विश्वास रख के तो देख ,तुझे समाज मे अग्रणी ना वाना दूँ तो कहना ||
५. तू मुझे अपना मददगार वना के तो देख ,तेरा जीवन सफल ना कर दूं तो कहना ||
६. तू मेरे नाम से खर्च करके तो देख , तेरे भंडार ना भर दूं तो कहना ||
७. तू मेरे लिए कष्ट उठा के तो देख , तेरे जीवन मे आनंद का सागर ना भर दूं तो कहना ।।
८. तू मेरे चरित्र का मनन करके तो देख ,ज्ञान के मोती तुझमे ना भर दूं तो कहना ||
९. तू मेरे नाम का संकीर्तन करके तो देख ,तुझे सब व्याधियो से मुक्त ना कर दूं तो कहना ||
१०. तू मेरे अनुसासन - मर्यादा मे रह के तो देख ,तुझे चरमोत्कर्ष पर ना पहुचा दूं तो कहना ||